सवाल सारे हिंदुस्तानियों का.....???

आजादी के बाद के भारतीय समाज की यह बड़ी विडंबना है कि राजनीति हर अच्छे-बुरे आंदोलन को खा जाती है। विनोबा भावे अपने गुरु महात्मा गांधी के बाद उनकी परंपरा को चलाना चाहते थे। राजनीति के खिलाड़ियों ने इसी दौरान देश की बिसात पर ऐसा कब्जा जमाया कि वह निस्पृह संत भी तमाम विवादों में घिर गया।कई बार देखा गया है। जनता के बीच से एक व्यक्ति उठता है, आकांक्षाओं का प्रतीक बनता है, लोग उसके पीछे हो लेते हैं, लेकिन जब मतदान का वक्त आता है, तो वे उस शख्स की सारी सलाहों को भुला देते हैं। महेन्द्र सिंह टिकैत इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं।टिकैत की देशज भाषा में हमारे किसानों ने अपने स्वाभिमान की नई परिभाषा गढ़नी शुरू कर दी है। पर हुआ क्या?सियासी दलों ने पहले तो उनकी लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की। जब वे नहीं माने, तो उन्होंने अपनी लकीर को लंबा करना शुरू किया। हालत यह हो गई कि टिकैत की एक आवाज पर जब-तब सैकड़ों लोग इकट्ठा हो जाते थे, लेकिन जब वोट देने का वक्त आता, तो उनके जातीय, धार्मिक या अन्य पूर्वाग्रह प्रबल हो उठते।
                ऐसा नहीं कि सिर्फ सामाजिक आंदोलनों के साथ ही यह तमाशा होता है। बहुत अफसोस के साथ दो उदाहरण याद दिलाना चाहूंगा। गांधी के जीते जी ही उनके दो प्रिय पात्र अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े थे। नेहरू और पटेल का वैचारिक द्वंद्व लोगों और मीडिया के बीच चर्चा का विषय बन गया था। बाद में जयप्रकाश नारायण ने जब बहुमान्य सिद्धांतों के आधार पर नए आंदोलन की शुरुआत की, तो लगा कि 1947 में हम जिन सपनों को पीछे कराहता हुआ छोड़ आए थे, वे जिंदा हो उठे हैं। लेकिन 1977-79 के बीच की घटनाओं ने तय कर दिया कि राजनीति विमुक्त वानप्रस्थियों के बस का खेल नहीं है। यहां निजी हित और जोड़तोड़ हमेशा प्रबल रहेंगे। उनके जीते जी ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह आपस में जूझ पड़े थे।नेहरू और पटेल का टकराव आजाद भारत का पहला सत्ता संघर्ष था। गांधी तथा जनता के सपनों का दबाव उसे मर्यादा की चौहद्दियां पार करने से रोकता था।जे.पी. जैसे अपने बनाए लाक्षागृह के साथ सुलग और समाप्त हो रहे थे। गांधी की तरह वह भी अकेले थे। बदले वक्त ने उनके साथ राष्ट्रपिता से कहीं ज्यादा क्रूर व्यवहार किया था।
                 इसीलिए अन्ना हजारे ने शुरू से ही अपनी मुहिम को राजनीति से दूर रखा।यह इम्तिहान किसी अन्ना हजारे या अरविंद केजरीवाल का नहीं, बल्कि उन करोड़ों हिन्दुस्तानियों का है, जो ईमानदारी से जीना चाहते हैं। एक पारदर्शी सत्ता प्रणाली की चाहत रखते हैं। पर यह हो कैसे? अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि हमारे सारे नेता एक जैसे हैं। ऐसा नहीं है। हर दल में बड़ी संख्या में ईमानदार और नेकनीयत लोग हैं। पर एक दुखद तथ्य यह भी है कि वे नेता तमाम दागदार छवि वाले लोगों से घिरे हुए हैं। इससे उनके नेक इरादे परवान चढ़ने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। यही कारण है कि समूचे सिस्टम में नपुंसक असहायता का भाव गहरा गया है।ऐसे कठिन वक्त में अन्ना हजारे ने हम लोगों को एक रास्ता दिखाया है। यह वक्त का तकाजा है कि हम ऐसे ईमानदार लोगों की मदद करें, जो तंत्र में रहते हुए भी इसकी कालिख से दूर रहना चाहते हैं। इसके लिए  लोकपाल विधेयक की लड़ाई तो अपनी जगह है, पर हम अपने गांवों-कस्बों और शहरों में ईमानदारी की मशाल जलाने के लिए अपने जैसे तमाम लोग ढूंढ़ सकते हैं। उनके साथ तय कीजिए कि हम न रिश्वत लेंगे, न देंगे। सारे टैक्स ईमानदारी से अदा करेंगे।बदले में सरकारी सुविधाओं को दुरुस्त बनाने के लिए सूचना के अधिकार का प्रयोग करेंगे। यदि कहीं अनीति या अन्याय हो रहा है, तो उसके खिलाफ एसएमएस, सोशल नेटवर्किग साइट, छोटी सभाओं के जरिये अपनी आवाज बुलंद करेंगे।

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